गुरुवार, 10 मई 2012

मैंने देखा उन आँखों को बुढ़ापे के दर्द से रोते हुए

वो आंखे तक़रीबन सत्तर साल पुरानी होंगी, वो अपने जीवन के शायद सत्तर बसंत देख चुकी होंगी, उन आँखों ने बहुत से दुःख और सुख को देखा होगा, उन्होंने कई बचपन को जवानी में बदलते देखा होगा, उन आँखों शायद कितने ही आंसू की बुँदे गीराई होंगी, सुख में भी दुख में भी, उन आँखों ने कभी अपनों के प्यार को देखा होगा तो कभी गेरो की नफरत को, कभी सम्मान देखा होगा तो कभी अपमान को, कभी हरियाली को देखा होगा तो कभी पतझड़ को और जिंदगी के कितने रूपों को ढलते-बदलते देखा होगा, अपने बचपन और जवानी को देखा होगा और अब वो आंखे उम्र के इस पड़ाव पर अपने बुढ़ापे को देख रही है, अपने शरीर में हो रही को कमजोरियों को देख रही है, आईने में अपने माथे की झुर्रिय देख रही है और अब ये आंखे अपने बुदापे में बस एक और जीवन की अहम् मंजर को देखना चाहती है वो है दया, तरस, मर्म और किसी और की आँखों में अपने लिए सहारे की भावना देखना चाहती है ये आंखे, लेकिन शायद ही इन बुढ़ापे की आँखों पर कोई तरस खाए, अपने लिए थोड़ी सी दया के लिए इन आँखों से पानी अब भी सुख-सुख कर चेहरे पर गिरती है लेकिन कोई इन आँखों में झांक कर समझने की कोशिश नहीं करता की आखिर इन आँखों भला इस उम्र में होटल के झूठे बर्तन क्यूँ मांजने  उए अपनी आँखों से देखना पद रहा है और कभी-कभी तो पानी के  पानी के साथ  भी  आंसू की बुँदे भी बर्तनों को धुल देती है, उनपर गिरकर शायद उन आँखों को इन्तजार है किसी की आँखों से दया के आंसुओ के गिरने की.

" मैंने देखा उन आँखों को बुढ़ापे के दर्द से रोते हुए " 

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