कोरोना से संक्रमित लोगों की सारी उम्मीदें अस्पताल और डॉक्टरों द्वारा हो रहे इलाज पर टिकी हैं। लेकिन यह अफसोस की बात है कि अस्पतालों में मरीजों को जो सुविधाएं मिलनी चाहिए, वे उन्हें नहीं मिल रही हैं। वहां मरीजों की संख्या के हिसाब से बेड कम हैं और साफ-सफाई पर भी कुछ खास ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में, सवाल यह है कि क्या अस्पतालों की इस कुव्यवस्था को दूर करने के लिए सरकार कोई सख्त कदम उठाएगी? डॉक्टर, नर्सें और पैरा मेडिकल स्टाफ, जो दिन-रात कोरोना संक्रमित मरीजों के इलाज में जुटे हुए हैं, उनकी सेहत और सुरक्षा पर भी ध्यान देना जरूरी है।
सोमवार, 15 जून 2020
जरुरी है लॉकडाउन का अनुपालन
कोरोना वायरस वैश्विक महामारी से आज पूरा विश्व जूझ रहा है। ऐसे में हमें अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए लॉकडाउन के नियमों का अनुपालन करते हुए स्वयं सुरक्षित रहना चाहिए। लॉकडाउन में भले ही ढील होने से लोगों का आवागमन भी शुरू हो गया है। लेकिन इस समय भी खतरा ज्यों का त्यों बरकरार है। ऐसे में बहुत जरूरी होने पर ही हमें अपने घरों से बाहर निकलना चाहिए। बार-बार साबुन से हाथ धुलना व सैनिटाइजर का प्रयोग करना चाहिए। हर समय मास्क लगाकर ही कहीं जाएं। इसके अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा। हमें अपने कीमती समय का सदुपयोग अपने बच्चों के साथ करना चाहिए। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम बच्चों की सुरक्षा के लिए उन्हें कत्तई घरों से बाहर न निकलने दें। ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा का भरपूर लाभ बच्चों को प्रदान करें। याद रखें कि हमारी जरा सी असावधानी और नियमों की अनदेखी हमारे और हमारे परिवार को खतरे में डाल सकती है। इसलिए लॉकडाउन के नियमों का अनुपालन हमें हर हाल में करना चाहिए।
बॉलीवुड पर ग्रहण
इस साल लगता है, बॉलीवुड को ग्रहण लग गया है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत दुनिया को अलविदा कह गए। अभी कुछ दिनों पहले ही इरफान खान और ऋषि कपूर ने भी हमसे विदाई ली थी। साफ है, कोरोना काल में न जाने कितनी विपदाएं आई हैं और न जाने कितना कुछ देखना बाकी है। बहरहाल, सुशांत सिंह की मौत का रहस्य शायद ही सामने आ पाए, लेकिन इससे पता चलता है कि बॉलीवुड में हंसते-मुस्कराते चेहरे के पीछे भी कई गहरे राज छिपे होते हैं। जिंदगी में सब कुछ मिलने के बाद भी कोई कलाकार जीवन से नाखुश हो सकता है। इतना सुलझा, शांत और सादगी भरा जीवन जीने वाला इंसान इतना अकेला कैसे हो गया, और दुनिया को इसका पता भी नहीं चल सका, ताकि उसका हाथ थामकर उसे तनाव से बाहर निकाल लिया जाता? ग्लैमर की दुनिया का शायद अलग ही दस्तूर है, जो आम आदमी कतई नहीं समझ सकता।
शिक्षण कार्य जरूरी
कोरोना संक्रमण काल के दौरान जहां एक तरफ पूरी दुनिया की रफ्तार थम गई है, वहीं शिक्षा व्यवस्था भी पूरी तरह से बेपटरी हो गई है। इसको लेकर सरकार व प्रशासन को ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। जिससे एक बार फिर बंद पढ़े स्कूलों में शिक्षण कार्य शुरू हो सके। वजह कि गत सत्र में छात्रों को बिना परीक्षा दिए ही अगली कक्षा में पहुंचा दिया गया है। ऐसे में भले ही बच्चों की सुरक्षा हुई है लेकिन उनकी शिक्षण क्षमता प्रभावित हुई है। ऐसे में इस पर विशेष ध्यान देकर व्यवस्था में बदलाव करनी चाहिए।
जानलेवा अकेलापन
फिल्म ‘छिछोरे' में एक पिता आत्महत्या करने की कोशिश करने वाले अपने बेटे को अवसाद से उबारते हुए कहते हैं, ‘अगर जिंदगी में सबसे अधिक कुछ जरूरी है, तो वह है, खुद की जिंदगी'। इस डायलॉग को कहने वाले रील लाइफ के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत खुद को असली जिंदगी के अवसाद से उबार न सके। आखिर क्यों? जब हमें काफी मेहनत के बाद सफलता मिलती है, तो हम उस सफलता के इतने दीवाने हो जाते हैं कि जरा-सी असफलता भी हमें अंदर से तोड़ देती है। इस तरह की असफलता हमें अवसाद की ओर ले जाती है। संयुक्त परिवार न होना हमारे अकेलेपन पर हावी हो जाता है, जिसके कारण हम इतने परेशान हो जाते हैं कि अपनी सबसे कीमती जिंदगी भी स्वयं समाप्त कर देते हैं। अवसाद में डूबे इंसान के लिए अकेलापन जानलेवा होता है। इस समय हमें सबसे अधिक अपनों की जरूरत होती है, जो हमारा ख्याल रख सके। अपने सहयोगी कर्मचारियों के होने के बावजूद प्यार और ख्याल रखने वाले अपनों की कमी ने शायद सुशांत सिंह राजपूत को हमसे दूर कर दिया।
गलत निर्णय का खमियाजा
दिल्ली में जिस तरह से कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या तेजी से बढ़øती जा रही है‚ उससे तो यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हालात को संभालने में केंद्र और राज्य सरकार विफल रही है। केजरीवाल सरकार ने लॉकड़ाउन खोलने में जिस हल्केपन का परिचय दिया‚ उससे हालात तो बिगड़़ने ही थे। जब हालात बेकाबू होने को है तो केंद्र सरकार अपने स्तर पर दिल्ली में नियम–कायदे लगाएगी। यह समझदारी नहीं है। पहले से इस बात का होमवर्क किया जाना जरूरी था।
कार्यशैली में हो बदलाव
छोटे विवादों के बाद पीड़ित पक्ष थाने पर न्याय के लिए पहुंचते हैं तो थाने पर पीड़ितों को न्याय दिलाने की रवैया भी बहुत अजीब है। समस्या के समाधान या मुकदमा दर्ज कराने के बजाए पीड़ित और विपक्षी को थाने पर बुलाया जाता है। विपक्षी की पैठ पुलिस में अच्छी होने पर उसको तवज्जो और पीड़ित को दबाव दिया जाता है। पुलिस आपराधिक मुकदमा दर्ज करने के बजाए पंचायत करने में जुट जाती है। लाचार पीड़ित पुलिस के खौफ से दबाव में आकर बगैर समाधान के सुलह पर सहमत हो जाता है। जिससे पीड़ितों को थाने स्तर से बहुत ही कम न्याय मिल पाता है। जिसकी वजह से आपराधिक घटनाएं अधिक हो रही हैं। पुलिस की लापरवाही से पीड़ितों को नुकसानी भी उठानी पड़ रही है। ऐसे में थाने पर पुलिस की कार्यशैली में बदलाव समय की मांग है। जिससे निरीह पीड़ितों को न्याय मिल सके।
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