सोमवार, 27 जुलाई 2020

भविष्य का सवाल है

कोरोना के बढ़ते रफ्तार को देखते हुए परीक्षा का विरोध व्यवहारिक एवं जायज भी है‚ लेकिन गंभीर मसला यह है कि परीक्षा न कराने की स्थिति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास विकल्प क्या हैॽ बड़े स्तर पर मास प्रमोशन भी छात्रों के हितों में नहीं है। अगर उनको प्रोन्नत कर दिया जाता है तो फिर कोरोना काल की समाप्ति के बाद उनकी डिग्री को संदेह की oष्टि से निजी कंपनियां देखेंगी। गांव–देहात में नेट कनेक्टिविटी के जर्जर हालात को देखते हुए ऑनलाइन परीक्षा कराने की बात सोचना भी न्यायसंगत नहीं है। ऐसे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को मिल–बैठकर बीच का कोई रास्ता निकालना चाहिए‚ जिससे छात्रों का भविष्य दांव पर न लगे। इस मसले पर तत्काल निर्णय लिया जाए॥

सतर्क रहना होगा

मेरठ में लव जिहाद की हालिया वारदात वाकई बेहद गंभीर है। आखिर क्यों हिंदू लड़कियां लव जिहाद का शिकार हो रही हैं। प्रिया की मौत कोई पहली मौत नहीं है। इस प्रकार की घटना मेरठ में पहले भी घटी थी। मेरठ में लोइया ग्राम निवासी शाकिब ने अपना धर्म छिपाकर एकता नाम की युवती को अपने प्रेम जाल में फंसाया और फिर सच्चाई खुलने पर एकता के शरीर के टुकड़े–दुकड़े कर दिए। लव जिहाद जैसी घटनाओं पर सरकार को तो सख्ती करनी ही चाहिए‚ इसके अतिरिक्त युवतियों को भी अपनी समझदारी का स्तर बढ़ना होगा। परिवार को भी ऐसे मामलों में सचेत रहने की जरूरत है॥

बुधवार, 22 जुलाई 2020

ऑनलाइन मतदान का विकल्प

वर्तमान समय में पूरी दुनिया के साथ बिहार में भी कोरोना का कहर जारी है। कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के काल में ऐसा लग रहा है मानो सरकार चुनाव कराने के लिए कटिबद्ध हो लेकिन आज कोरोना का प्रकोप कहर ढा रहा है। लोगों को इलाज की जरूरत हैसरकार को चुनाव कराने की इतनी ही ज्यादा जल्दी है और लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए इतनी ही बेकरारी हैतो ऑनलाइन चुनाव करवाने की व्यवस्था करनी चाहिए। ऑनलाइन शॉपिंग की तरह ऑनलाइन मतदान की व्यवस्था करे। जिस तरह नेट बैंकिंग द्वारा पैसा ट्रांसफर हो जाता हैउसी तरह मतदान की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती। लोकतंत्र को जिंदा रखने के नाम पर लोक के स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं किया जाए। विदेशों में कोरोनाकाल में चुनाव होने का तर्क देकर बिहार में भी चुनाव कराने का तर्क दिया जाता हैतो उन्हें विशाल मतदाता संख्या को भी देखने की जरूरत है।


विधायकों की पिंजड़़ाबंदी

जब तक उच्चतम न्यायालय से फैसला नहीं आ जाता है‚ तब तक राजस्थान की जनता को देखने वाला कोई नहीं है। विधायकों का यह आचरण लोकतंत्र की मर्यादा के विरुûद्ध है। उच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई के दौरान भी विधायकों को जनता के बीच रहना चाहिए। जिस तरीके से लोग जानवरों को पिंजड़े में कैद कर रखते हैं‚ उसी तरह अशोक गहलोत और सचिन पायलट अपने–अपने समर्थक विधायकों को पिंजड़े में कैद किए हुए हैं। क्या इन नेताओं को अपने विधायकों पर भरोसा नहीं है‚ या इनकी जान को खतरा हैॽ विधायकों की निष्ठा जनता के प्रति है या बड़े नेताओं के प्रतिॽ जनता को इन सभी सवालों का जवाब जानने का हक है। यह लोकतंत्र के पतन की पराकाष्ठा है। न्यायालय को जनता की खातिर जल्द से जल्द इस मामले में फैसला सुना देना चाहिए॥

न हो अनर्गल शब्दों का प्रयोग

विगत दिनों से राजस्थान में राजनीति के अंतर कलह और दांवपेच जग जाहिर हैं। राजनेताओं के आपसी मतभेदों की चरम सीमा यहां तक पहुंच गई कि निकम्मा‚ नाकारा जैसे शब्द उस माहौल में गूंज रहे हैं। वरिष्ठ नेताओं के आक्रोश भरे मतभेद ओर अंतर कलह की इस प्रतियोगिता में राजनेताओं को यह भी भान नहीं होता कि हम आरोप–प्रत्यारोप में जिन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं‚ उनका जना धार पर और समाज पर क्या प्रभाव होगा.ॽ कम से कम अशोभनीय और अनर्गल शब्दों का तो ध्यान रखना चाहिए। निकम्मा‚ नाकारा जैसे शब्दों का अगर प्रयोग होगा तो राजनीति के मायने ही बदल जाएंगे॥


फिर लगाएं बंदिशें


सड़कों पर जो स्थिति दिख रही है‚ उससे कहीं नहीं लग रहा है कि हम कोरोना जैसी महामारी के बीच जिंदगी जी रहे हैं। लोग बड़े आराम से घर से बाहर बाजार और अन्य जगहों पर टहल रहे हैं। ऐसे में इस महामारी का प्रकोप बढ़ना निश्चित है। सरकार को चाहिए कि फिर से लंबे समय के लिए बंदिशें लागू कर दे‚ नहीं तो पिछले कुछ समय में की गई सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा॥

सोमवार, 13 जुलाई 2020

पाऊच लॉकड़ाउन में

लॉकड़ाउन जब दो महीने का होता था‚ तब उसे मेगा लॉकडाउन का लॉकडाउन का फैमिली पैक कह सकते थे‚ अब ५५ घंटों के लॉकडाउन‚ ४८ घंटों के लॉकडाउन‚ इन्हें लॉकडाउन का पाऊच वर्जन कहा जा सकता है। अब लॉकडाउन का फैमिली पैक खत्म हो लिया है‚ पाऊच वर्जन चल रहा है। बंगलूर में‚ यूपी में और भी बहुत जगह॥। कोरोना पर खबरें लिखने वाले और पढ़ने वाले दोनों ही बहुत परेशान हो गए हैं कोरोना से। डर का एक मनोविज्ञान यह भी है कि जब डर बहुत ज्यादा फैल जाता है‚ तो एक खास किस्म की निडरता को जन्म देता है–ठीक है‚ होगा जो भी देखा जाएगा। दरअसल‚ इसके सिवाय कोई विकल्प भी नहीं है। क्या कर लेंगे‚ कोरोना आ रहा है‚ कोरोना आ गया है‚ कोरोना आएगा। क्या किया जा सकता है। पाऊच लॉकडाउन को देखिए‚ मेगा लॉकडाउन देख चुके हैं। मैं तो रोज सरकारी बयानों को देखता हूं‚ जिनमें सब कुछ फिट दिखाई देता है। वैसे कोरोना भी सबके लिए एक सा ना होता। बड़ा आदमी कोरोना की गिरफ्त में आता है‚ तो खबरें ये आती हैं‚ फलां जी ने १२ बजे पानी पिया‚ १ बजे सेब खाया‚ २ बजे ये खाया.। आदमी फंसता है‚ तो खबर यह आती है कि सात अस्पतालों में गर्भवती पत्नी लेकर भटकते रहा भट्टालाल कहीं दाखिला ना मिला। ॥ कोरोना टाइप की बीमारियां बड़े आदमियों को ही होनी चाहिए‚ दरअसल वो ही अफोर्ड कर सकते हैं। लॉकडाउन में थ्रोबैक पुरानी फोटू डालते हैं–बीस साल पहले मैं ऐसा था–टाइप। आम आदमी की जिंदगी में बीस साल में फर्क इतना भर आ जाता है कि बीस साल पहले वह बच्चे के स्कूल एडमीशन की लाइन में खड़ा था‚ अब वह कंसेशन रेट पर कराए जा रहे कोरोना टेस्ट की लाइन में लगा हुआ। पुराना नया सब एक सा है‚ बदलता नहीं है। लाइन में हैं जी। लाइन मुक्त होकर फाइव स्टार जीवन के लिए इस मुल्क में या तो परम संपन्न होना पड़ेगा या विधायक‚ जाने कहां कहां के विधायक फाइव स्टार होटलों में जनता की सेवा कर रहे हैं। आप ना विधायक हैं ना संपन्न‚ तो भगवान ना करे कि आपकी ऐसी खबरें आएं–किसी अस्पताल में दाखिला ना मिला।

कोई बुरा ना माने,

मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं कोई भी मंदिर अगर बनता है तो उसके इतिहास से आप उसे गलत या सही कह सकते हैं कि क्यों बन रहा है लेकिन एक चीज हम ...