सोमवार, 8 जून 2020

नियमों का पालन जरूरी

देश में लाक डाउन संबंधित नियम तो बहुत बना दिए गए हैं‚ परन्तु उन पर अमल कितना होता है यह देखने वाली बात है। पहले की ही तरह कानून आम दिनों में जैसे तोड़े जाते रहे हैं‚ वैसे ही इस दौर में भी टूट रहे हैं। सड़क किनारे मौजूद कानून के रखवाले भी नियम टूटने पर मूकदर्शक बने खड़े रहते हैं। दुकानों पर तय दूरी को ताक पर रख दिया जाता है। जनप्रतिनिधि भी इससे अछूते नहीं हैं। कहीं चुनाव की तैयारियों को लेकर एकत्रित हो रहे हैं तो कोई नाई से बाल कटवा रहा है। जबकि कोरोना महामारी के शुरुûआती समय में ही सरकार और स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने जनता से यह अपील की थी कि मास्क हर किसी को पहनना होगा। साथ ही सोशल डि़स्टेंसिंग का पालन अनिवार्य है। मगर कई लोगों ने इस निर्देश पर अमल नहीं किया और अब वो सारे लोग कोरोना की चपेट में हैं॥

दोबारा सोचे सरकार

कोरोना अब रौद्र रूप लेती जा रही है। प्रति दिन देश में १० हजार मामले आ रहे हैं‚ जो वाकई चिंता का सबब हैं। कोरोना संक्रमण से इस समय ज्यादा खतरा है। दबी–छुपी जबान में यह भी कहा जाने लगा है कि अब यह सामुदायिक संक्रमण के दौर में चला है। ऐसे में क्या ऐसा नहीं लगता कि धाÌमक स्थलों को खोलने का निर्णय कहीं उल्टा न पड़ जाएॽ क्योंकि सख्ती से किए गए पहले और दूसरे लॉकडाउन से कुछ हद तक संक्रमण पर नियंत्रण था। धÌमक स्थलों को खोलना कोई बुराई नहीं है। परंतु अभी संक्रमण काल तेजी से गतिमान है‚ उसमें ये निर्णय अनुचित लगता है। सरकार को एक बार फिर से अपने निर्णय कीी समीक्षा करनी चाहिए॥

बचाव के उपाय तलाशे सरकार

अगर कोरोना वायरस से फैली बीमारी को महामारियों का जत्था कह रही है‚ तो उसके कई स्पष्ट कारण हैं। कोविड–१९ से जूझना और इसका निदान खोजना एक बात है‚ लेकिन इसके कारण पूरी दुनिया में बेरोजगारी‚ गरीबी‚ पलायन और हिंसा–लूटपाट समेत जो अन्य महामारियां फैलने लगी हैं वे एक विशाल संकट की ओर इशारा कर रही हैं। संकट यह है कि बेरोजगारी और पलायन के साथ–साथ दुनिया भूख की महामारी की कगार पर पहुंच रही है और इससे भुखमरी के आंकड़े तेजी से बदल रहे हैं। ॥ यह कितनी बड़ी विपदा हो सकती है–इसका एक अनुमान संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने २१ अप्रैल‚ २०२० को हुई बैठक में लगाया गया था‚ जिसके मुताबिक दुनिया में साढ़े १३ करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में आ सकते हैं। पर अब इन आंकड़ों के भी दोगुने से ज्यादा हो जाने का अनुमान है। सबसे ज्यादा चिंता भुखमरी को लेकर ही है क्योंकि खाद्यान्न और भोजन की जो सप्लाई चेन और वितरण की जो व्यवस्था है‚ वह लगभग तबाह हो गई है‚ जिससे जरूरतमंदों को खाना नहीं मिल पा रहा है। ॥ सवाल अनाज वितरण की उस सार्वजनिक व्यवस्था पीडीएस का भी है जिसका मकसद ऐसे ही उद्देश्यों की पूÌत करना है‚ लेकिन अनिगनत अनियमितताओं के कारण गरीबों को इसका उचित लाभ नहीं मिल पाता है। अतीत में झांकें तो भुखमरी फैलने के कई और कारण भी दिखाई देते हैं‚ लेकिन इस समय मोटे तौर पर इसकी दो ही बड़ी वजहें हैं। एक तो किसानों और आढ़तियों की तरफ से ही सप्लाई कम है क्योंकि मंडियों में उनकी उपज के खरीदार नहीं हैं। जो खरीदार हैं वे उपज के औने–पौने दाम लगा रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि गरीबी और बेरोजगारी के कारण लोगों के हाथ में भोजन–खाद्यान्न खरीदने लायक पैसे भी नहीं बचे हैं। ऐसे में एकमात्र उम्मीद खाद्य सुरक्षा और भोजन की गारंटी से है‚ जिसका एक बेहतर सिस्टम ही कुछ मददगार हो सकता है। पर हमारे देश में सार्वजनिक खाद्यान्न वितरण के इस सिस्टम (पीडीएस) में हर स्तर पर इतनी खामियां हैं कि इससे भुखमरी में ज्यादा राहत मिलने की उम्मीद कम ही है। उल्लेखनीय है कि खाद्य और कृषि संगठन के सहयोग से संयुक्त राष्ट्र द्वारा ७ जून को मनाए जाने वाले ‘वर्ल्ड फूड सेफ्टी डे' के तहत जिन पांच लIयों को हासिल करने की उम्मीद इस संगठन ने की‚ उनमें पहला यही है कि दुनिया भर की सरकारें अपने सभी नागरिकों को लिए सुरक्षित और पौष्टिक भोजन सुनिश्चित करें। ॥ आंकड़ों में देखें तो देश के सरकारी गोदामों में अनाज पर्याप्त मात्रा में है‚ लेकिन गरीबों में भुखमरी की नौबत इसलिए आ रही है क्योंकि उन्हें सरकारी कोटे से मिलने वाले राशन में गड़बडि़यां हो रही हैं। सरकार अगर कोरोना संकट के दौरान गरीबों और भूखों को खिलाने के लिए अनाज भंडार का उपयोग करने के स्थान पर उसे गोदामों में सड़ने दे‚ यह भी एक किस्म की आपदा है। एक अंदाजा है कि बीते चार महीनों में दश के सरकारी गोदामों में ६५ लाख टन अनाज सड़ गया। यह बताता है कि सरकार कोल्ड स्टोरेज के अभाव में लंबे समय तक अनाज को स्टोर करके नहीं रख पा रही है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश के सरकारी गोदामों में अक्टूबर २०१८ के बाद से १ मई २०२० तक अनाज भंड़ारण में लगातार वृद्धि हुई है। नया गेहूं आने के बाद अब इन गोदामों में ८७८ लाख टन अनाज है‚ जिसमें ६६८ लाख टन अनाज सरप्लस में है। सरकारी गोदाम अनाज से अटे पड़े हैं और गरीबों के सामने भूखों मरने की नौबत हो‚ तो सवाल पैदा होता है कि क्या सरकार के पास गरीबों को राशन देने की कोई योजना नहीं है। ॥ कहने को सरकार ने हाल में पहली जून‚ २०२० से ‘एक देश‚ एक राशन कार्ड‘ योजना को लागू कर देश के ६७ करोड़ गरीबों को किफायती कीमत में राशन पहुंचाने की व्यवस्था कर दी है‚ लेकिन इसका फायदा पीडीएस के तहत राशन की जिन दुकानों से मिलना है‚ वे हमेशा सवालों घेरे में रही हैं। सरकार कह रही है कि इस योजना के तहत पीडीएस के लाभाÌथयों की पहचान उनके आधार कार्ड पर इलेक्ट्रॉनिक प्वाइंट ऑफ सेल से की जाएगी। लेकिन अभी तो राशन की ये दुकानें घपलेबाजी के लिए ही जानी जाती हैं। यह हाल की ही सूचना है कि बिहार में अनियमितता करने वाली ऐसी ही ८०० राशन की दुकानों को सील किया गया था और २५९ दुकानों पर केस दर्ज किया गया था। छुटभैये नेताओं की शह पर गड़बड़ी करने वाले राशन डीलरों से लेकर सरकारी गोदामों में अनाज की बर्बादी तक पूरे सिस्टम को ओवरहाल किए बगैर भुखमरी से निपटने का संकल्प जताना हवाई दावे करने जैसा है–यह बात हमारे नेताओं और सरकारी नुमांइदों को समझनी होगी॥

शुक्रवार, 5 जून 2020

अमानवीय कृत्य

केरल में गर्भवती हथिनी के साथ हुई बर्बरता हृदय-विदारक है। हमारे संविधान में सभी जीवों के प्रति दया की भावना रखने की बात मौलिक कर्तव्यों में कही गई है। हमारी संस्कृति में भी कई जीवों को पूजनीय माना जाता है और अहिंसा को महत्व दिया जाता है। ऐसे में, देश के सबसे शिक्षित राज्य में ऐसी अमानवीय घटना हमें चिंतित करती है। शत-प्रतिशत साक्षरता का भला क्या उद्देश्य होना चाहिए? क्या शिक्षा-व्यवस्था में सुधार की जरूरत है? जानवरों के अधिकारों को लेकर हमें ज्यादा गंभीर होना चाहिए। यह सही है कि देश में हर व्यक्ति को उनके अधिकार नहीं मिल पाते हैं, लेकिन मानवाधिकार और अन्य जीवों के अधिकार की बात एक साथ होनी चाहिए। ऐसा क्रूरतापूर्ण काम करने वालों से भला मानवता की क्या उम्मीद की जाए!

बढ़ता तनाव

केरल के एक गांव में नौवीं कक्षा की एक छात्रा ने जिस तरह से आत्महत्या की, उससे कई सवाल उठ खड़े होते हैं। कहा जा रहा है कि ऑनलाइन पढ़ाई न कर पाने की वजह से वह दबाव में थी। यह बेहद अफसोस की बात है कि एक बच्ची पढ़ना चाहती थी, पर संसाधन के अभाव में हताशा के गर्त में चली गई और अपनी जान दे बैठी। सचमुच, सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे इतने संपन्न नहीं होते कि उनके पास स्मार्टफोन, टीवी, केबल आदि हों। ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन और इंटरनेट की जरूरत पड़ती है। उस बच्ची के पिता दिहाड़ी मजदूर हैं। संभवत: पिता की आर्थिक मजबूरी रही होगी कि वह अपनी बेटी की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरूरी संसाधन नहीं जुटा पाया। दिक्कत यह है कि सरकार ने ऑनलाइन पढ़ाई शुरू तो कर दी, लेकिन इसके लिए अपनी तैयारी पूरी नहीं की। कुछ समय लगाकर पहले अभिभावकों को तैयार करना जरूरी था। यह घटना सबक दे रही है कि हमें अपने आसपास ऐसे परिवारों की खोज-खबर जरूर लेनी चाहिए, जिनके मुखिया की आजीविका इस लॉकडाउन में चली गई हो और बुनियादी जरूरतें भी वह पूरी नहीं कर पा रहा हो।

सबकी है दुनिया

विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रकाशित अनिल प्रकाश जोशी का लेख ‘यह दुनिया सिर्फ इंसानों की नहीं' पढ़ा। वाकई, इस दुनिया पर जितना हमारा अधिकार है, उतना ही उन लाखों जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों का भी है, जिनको प्रकृति ने हमारे साथ जीवन दिया है। चूंकि इंसान सबसे बुद्धिमान प्राणी है, इसलिए उसे पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। लेकिन दुखद यह है कि हम पर्यावरण को बचाने के लिए समय-समय पर बातें तो खूब करते हैं, लेकिन जिस तरह से उन पर काम होना चाहिए, वह नहीं करते। हमें अपने आसपास की आबोहवा साफ रखनी ही होगी, अन्यथा मानव जीवन शायद ही बचा रह सकेगा।

जानवर कौन

धरती पर मानव ही ऐसा प्राणी है, जो अच्छे और बुरे का भेद कर सकता है। मगर केरल की घटना ने ईश्वर की सबसे सुंदर रचना पर शक की चादर चढ़ा दी है। वहां एक गर्भवती हथिनी के साथ किया गया व्यवहार दुखी करने वाला है। इस घटना से यह समझ नहीं आ रहा कि वास्तव में जानवर कौन है? वह हथिनी, जो पीड़ा में भी शांत होकर पानी में खड़ी रही या फिर वे इंसान, जिन्होंने इस बेजुबान को फल में बम खिला दिया। हथिनी के पेट में पल रहे बच्चे ने भी शायद यही सोचा होगा कि अगर मानव ऐसे होते हैं, तो ठीक है कि मैं धरती पर नहीं आया। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब-जब मानव इंसानियत से दूर हुआ है, तब-तब उसे इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है।

कोई बुरा ना माने,

मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं कोई भी मंदिर अगर बनता है तो उसके इतिहास से आप उसे गलत या सही कह सकते हैं कि क्यों बन रहा है लेकिन एक चीज हम ...