वर्तमान चीन में हिटलर की आत्मा प्रवेश कर गई है। हिटलर ने पहले ऑस्टिया को निगला। फिर चेकोस्लोवाकिया को कुतरा। जब दो बार अपने साम्राज्यवादी मंसूबों में सफल रहा तो फिर उसने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया। यदि पहले ही उसे यूरोपीय देश और अमेरिका सख्त लहजे में समझा देते तो उसे दूसरे विश्वयुद्ध को प्रारंभ करने वाली घटना-पोलैंड पर हमला-करने का दुस्साहस ही न होता। कम्युनिस्ट चीन ने पहले मंचूरिया को हड़पा, फिर इनर मंगोलिया और पूर्वी तुकस्तान पर कब्जा किया। दुनिया चुप रही तभी वह तिब्बत को कब्जाने का दुस्साहस कर सका। यहां तक भी उसकी मनमानी को कोई चुनौती नहीं मिली। तब उसने हिंदुस्तान पर अपनी आंखें गढ़ाईं। भारत को खुद की सुरक्षा में अक्षम पाकर उसकी बांछें खिल गईं। उसने लद्दाख की 37,000 वर्ग किमी भूमि हड़प ली। ऐतिहासिक रूप से भारत के लिए शर्मनाक 1950 का दौर चीन के लिए अत्यंत उत्साहवर्धक रहा। उसकी खुमारी उस पर अभी तक चढ़ी हुई है। 1962 की जीत के नशे में वह इतराता रहता है। यहां तक कि 1967 में सिक्किम में भारतीय सेना से भिडंत में उसकी जो नाक लहूलुहान हुई, उसे उसने भुला दिया है। 1969 में सोवियत रूस ने मंचूरियन सीमा पर चीन को परास्त किया, 1979 में वियतनाम ने उसके 20,000 हजार सैनिकों का खात्मा कर उसे शर्मनाक पराजय दी। उसके बाद कंबोडिया जैसे छोटे देश में भी चीन ने अपना नाम डुबोया। ये चीनी पराभव एवं अपयश के चिन्ह पिछले पचासवर्षो में दुनिया के सम्मुख उभरे हैं। गलवन की घटना में भी हमारी सेना उससे श्रेष्ठ साबित हुई है। अब अगर व्यापार के मोर्चे पर उसे शिकस्त दे दी गई तो चीन की सारी अकड़ झड़ जाएगी। कैट (भारतीय व्यापारियों का सर्वोच्च संगठन) यह इरादा बना चुका है कि दिसंबर तक 15 अरब डॉलर (एक लाख करोड़ रुपये) के बराबर चीनी माल के ऑर्डर वे रद्द करेंगे। यह एक बड़ी चपत चीन को लगने जा रही है। जनता भी चीनी मोबाइल एप जैसे टिकटोक, जूम को नकार रही है। प्रधानमंत्री का आत्मनिर्भरता का आह्वान तथा ‘लोकल के लिए वोकल’ होने का विचार लोगों को भा रहा है। उधर सीमा पर सड़कों का तेज निर्माण एवं विश्व के बेहतरीन शस्त्रों की खरीद अथवा उत्पादन चीन को सबक सिखाने की तैयारी दर्शा रहे हैं। अब चीन की निर्णायक पराजय साफ दिखने लगी है।
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